खामोशी से मेरी फ़र्क उनको अब पड़ता ही नहीं
रोऊं चाहे रोज मैं दिल उनका अब पिघलता ही नहीं
जरूरी कभी था ही नहीं उनके लिए होना मेरे वजूद का
मेरी खातिर उनके दिल में कोई अब जगह ही नहीं
खंजर है ऐसा उनके दर्द की सीने में के उखड़ता ही नहीं
खामोशी से मेरी ……….
होती है तकलीफ़ उनसे खुद को अब दूर रखने में
ना जाने क्यों कोई दर्द मेरा अब समझता ही नहीं
फिक्र किसे कितनी है बस परवाह ही साबित करती है
वरना रिश्तों के लिए कोई तराजू अभी तक बना ही नहीं
जिंदगी की इस भागमभाग में मिलते हैं जख्म हज़ार
कुरेदा जाता है ज़ख़्मों को मरहम कहीं से अब लगता ही नहीं
खामोशी से मेरी ……….
दुनिया वाले पता नहीं क्या-क्या मुझे अब समझते हैं
अगर आवारा भी समझें तो ये कोई बड़ा इल्जाम नहीं
मिल जाए अगर हमदर्द कोई दर्द मेरा समझने वाला
फिर मंज़िल किसी मंज़िल से तो मुझको तो कोई काम नहीं
मैं तो हूँ खुली किताब मगर क्या करूँ कोई मुझको पढ़ता ही नहीं
खामोशी से मेरी ……….
मिले अगर मुझे अपनो से खोया हुआ मान-सम्मान
समझूगा फिर जन्नत की कोई मुझे अब चाहत ही नहीं
आदत लगा रहा हूं खुद को अकेला अब रहने की
मान गया हूं दूर तक अपना साथ कोई देगा ही नहीं
ना जाने क्यूँ मेरी मोहब्बत का नशा उनको अब चढ़ता ही नहीं
खामोशी से मेरी……….