नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गांव ।
कितना सुखमय बीता मेरे बचपन का वो पड़ाव।
ग्राम्य जीवन दुष्कर था पर नहीं था वहाँ तनाव॥
वो कच्ची थी हवेली जहाँ पर खेली आंंख मिचोली।
मेरी प्यारी नानी थी वो अति सीधी और भोली।
बहुत मिली मुझको उनकी वो ममता भरी छाँव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
है याद मुझे बसवा गांव की पुरानी सी बाखल।
जिसके आंगन में थी सदा मस्तानी सी चहल।
मस्तराम मंदिर में घंटी बजाने का बड़ा था चाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
धींगामस्ती दिनभर करती हम बच्चों की टोली।
खेलते कभी गुल्ली-डंडा कभी खेलते गोली।
रोजाना ही खेल -खेल में लग जाता था घाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
तेज बहती मकान की मोरी पर पानी भरने जाते।
मित्रों के संग बहते जल में कूद-कूद कर नहाते।
थोडी बारिश में जाते देखने बसवा नला का बहाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
रुचिकर था कितना गाय-भैंसो को हाँकना।
हारु-ऊंटगाड़ी में बैठकर हिचकौले खाना।
रामा में जाने,डूंगर-चढ़ने का था मुझे चाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
सांझ होते ही नानी घर में दिया जला देती थी।
देर रात नेतर मामा के घर महफिल जमती थी ।
सोते तभी थे जब बढ़ जाता निंदिया का दबाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
बेवडियों पर बेर आते खेतों मे कचरी- आरे।
पेड़ों पर चढ़ खुद तोड़ते बेर-सींगरे सारे।
कहीं से भी फल बीनते,नहीं होता था मोल-भाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
था घर-आँगन में पीपल और नीम का पेड।
दोनों इतने ऊँचे-घने जैसे खडा खजूर का पेड।
जेठ की दोपहरी में देते वो ठंडी-शीतल छाँव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
दही,दूध और घी का घर में ना था जरा सा टोटा।
आस-पड़ोसी भी ले जाते भर-भर छाछ का लोटा।
शरद ऋतु में घर की चौखट पर जलता था अलाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
ऊबड़-खाबड़ गलियों में हम दौड़ लगाते-फिरते।
कच्चे धूल भरे रास्ते पर कभी गिरते कभी संभलते।
मेरे बाल सखा थे नेतर,सीतया और कागलाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
याद बहुत आते हैं बचपन के वो रात और दिन।
लंबी छुट्टियाँ कभी न बीती प्यारी नानी के बिन।
भूली-बिसरी यादों का अब मैं करता जोड़-घटाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
घुस आए कौन गाँव में नफरत का बीज लगाने।
भाई-चारा और सुख-शांति हो गए सारे पुराने।
नहीं सुहाता आंखों को अब गांव का ऐसा बदलाव।
नहीं भूला हूँ मैं आज भी नानी माँ का वो गाँव॥
मधुरता में जहर घुल रहा,सोच हो गई गंदी।
गांव का भोला बचपन इसी सोच में बंदी!
मेरे प्यारे ननिहाल वासियों,मेरा यही सुझाव।
नफरत की गंदी सोच से गाँव का करो बचाव।
नहीं भूला हूँ और नहीं भूलूंगा नानी माँ का वो गांव (gaanv) !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
जिसमें नहीं है धूप !!है बस छांव ही छांव।!!!!!!!!!!
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bahut mast ajay sir
great
good poetry
nice lines
good
Its nice poetry.